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क्यों प्रलय की आहट, देती ना सुनाई है………

संघर्ष एनजीओ
संघर्ष एनजीओ
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प्रकृति मौन साधे, चुपचाप सब देख रही,
मानव ने आग उसके, दामन जो लगाई है……..

खेत काटे, वन काटे, काटे दरख्त सारे,
ऊँचे महलों की, वहाँ दुनिया बसाई है………

… कुए सूखे, ताल सूखे, नदियाँ भी सूख गई,
प्यास बुझाने एक, तलैया ना बचाई है……….

आई सुनामी तब, हाथ मल मल कहे,
प्रकृति आज अपनी, जिद पर आई है……….

कभी अकाल, कभी बाढ़, भूचाल कभी,
कहे “दीवाना” ये बहुत छोटी तबाही है……….

नादाँ इंसान नही जानता है जानकर,
प्रकृति अपने में, लाख बवंडर छुपाई है……..

जीना जो चाहे, ना प्रकृति से खेल तू,
आगामी पीढ़ियों की, इसमें ही भलाई है……..

अभी भी समय है, सम्भले सम्भला जा,
क्यों प्रलय की आहट, देती ना सुनाई है………

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